उजाले की ओर –संस्मरण

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=================== "अरे ! यहाँ क्यों नहीं बैठती ? किताबों में इस उमर में क्या मिलेगा, लड्डू?" एक दिन नहीं, दो दिन नहीं जब ये संभाषण हर रोज़ के हो गए भाई कान पक गए, सिर चक्कर खाने लगा और आपनराम चुप्पी साधकर उस रास्ते से गुजरने लगे जहाँ से संभाषण की संभावनाएं बनी ही रहती हैं | उस तीर्थ की ओर देखे बिना जहाँ रामायण के पाठ के साथ ही मुझ जैसे लोगों को पकड़कर बैठने की भरसक कसरत की जाती थी | "अरे भैया ! जाने दो न, पकड़ूँ तोरी बैयां ---" "अभी पता नहीं चलता न, जवानी का