शाकुनपाॅंखी - 27 -मन बहुत अशान्त है महाराज

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37. मन बहुत अशान्त है महाराज 'मुझे आजीवन कंटकों से ही जूझना पड़ेगा? कान्यकुब्ज में पैर रखते ही एक विरोधी परिवेश क्या विकसित हुआ, जीवन भर के लिए काँटा बो गया। पर मैं भी दिखा दूँगी कि जीवट किसे कहते हैं। मैं विधवा होकर इस परिवार में आई। महाराज की पत्नी बनी। पुत्री चाहमान पराभव के साथ ही स्वर्ग चली गई। एक पुत्र राज्याभिषेक के लिए पूरी तरह सक्षम पर प्रारंभिक वैधव्य का टीका वहाँ भी बाधक । जैसे वैधव्य का वरण मेरे अधिकार में था। जिस शुचिता की बात पंडितों ने उठाई है उस पर क्या प्रश्न चिह्न नहीं