प्रेम गली अति साँकरी - 77

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77--- ----------------------- उद्विग्न, विचलित मन का नक्शा जिसमें न जाने कौन कौन से अनजाने शहर, गाँव, गलियों का बसेरा था | जिनमें बंद होते, खुलते दरवाज़े थे, जिनमें प्यार की कोमल संवेदनाएं थीं और कुछ ऐसी फुलझड़ियाँ जिन्हें ज़रा सी आँच मिली नहीं कि फटने को बेकरार थीं लेकिन सब कुछ ऐसे हालत में तब्दील होता जा रहा था जो मूक दर्शक सा बन अपने आपको समर्पित कर रहा था विश्व के उस उलझाव में जिसे विधाता ने गडा था और जो शायद -----नहीं, शायद नहीं, सच ही अपनी ही बनाई कठपुतली यानि इंसान को एक ऐसा पाठ पढ़ाना चाहता