शाकुनपाॅंखी - 11 - पंछी उतरो द्वार

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18. पंछी उतरो द्वार पूर्वप्रत्यूष काल । नगर निद्रामग्न । पक्षी भी अपने घोसलों में दुबके हुए। गंगा के हरहराते जल की ध्वनि । रात की साँय साँय । संयुक्ता दो सेविकाओं के साथ बार बार खिड़कियों से झाँकती। 'समय खिसक रहा है', उसने कहा । 'महाराज आते ही होंगे,' एक ने कहा ।‘अवश्य आएँगे। वे महाराज हैं', दूसरी ने जोड़ दिया। संयुक्ता की व्यग्रता बढ़ती जा रही है । 'उन्हें आना ही होगा,' वे बुदबुदा उठीं। 'माँ यदि सहयोग कर पातीं। उनकी अपनी विवशता है, मेरी भी ।' सम्पूर्ण कान्यकुब्ज का विरोध.....वह सिहर उठी । 'नहीं, मैं निश्चित कर