एक योगी की आत्मकथा - 27

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{ रांची में योग-विद्यालय की स्थापना }“तुम संगठनात्मक कार्य के इतने विरुद्ध क्यों हो ?”गुरुदेव के इस प्रश्न से मैं कुछ अचम्भित हुआ। यह सच है कि उस समय मेरा व्यक्तिगत मत यही था कि संगठन “बर्रो के छत्ते” मात्र होते हैं।“यह ऐसा कार्य है, गुरुदेव, कि व्यक्ति चाहे जो करे, या न करे, उसके सिर केवल दोष ही मढ़ा जाता है।”“तो क्या सारी दिव्य मलाई तुम अकेले ही खा जाना चाहते हो?” यह प्रश्न करते समय मेरे गुरु कठोर दृष्टि से मेरी ओर देख रहे थे। “यदि उदार हृदय गुरुओं की लम्बी परम्परा अपना ज्ञान दूसरों को देने की