एक योगी की आत्मकथा - 12

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{ अपने गुरु के आश्रम की कालावधि }“तुम आ गये!” श्रीयुक्तेश्वरजी ने बरामदे के पीछे स्थित बैठक में बिछे हुए व्याघ्रचर्म पर बैठे-बैठे ही मुझ से कहा। उनका स्वर ठंडा था, ढंग भावशून्य।“जो गुरुदेव! मैं आपके अनुसरण के लिये आया हूँ।” झुककर मैंने उनका चरणस्पर्श किया।“परन्तु यह कैसे हो सकता है? तुम तो मेरी इच्छाओं की अवहेलना करते हो।”“अब ऐसा नहीं होगा, गुरुजी! आप की इच्छा ही मेरा धर्म होगी।” “तब ठीक है! अब मैं तुम्हारे जीवन का उत्तरदायित्व ले सकता हूँ।” “मैं स्वेच्छा से अपना सारा भार आपको सौंपता हूँ, गुरुदेव!”“तो अब मेरा पहला अनुरोध यह है कि तुम