एक योगी की आत्मकथा - 11

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{ दो अकिंचन बालक वृन्दावन में }“यदि पिताजी तुम्हें उत्तराधिकार से वंचित कर दें तो कोई अन्याय नहीं होगा, मुकुन्द! कितनी मूर्खता से तुम अपना जीवन व्यर्थ गँवा रहे हो!" ज्येष्ठ भ्राता का हितोपदेश मेरे कानों पर आक्रमण कर रहा था।जितेन्द्र और मैं ताज़े-ताज़े ( केवल एक वाक्यालंकार! हम थे धूलिधूसरित) रेलगाड़ी से उतरकर अनन्त दा के घर पहुँचे थे जो हाल ही में कोलकाता से स्थानान्तरित होकर इस प्राचीन नगरी आगरा में रहने आये थे। वे सरकारी लोकनिर्माण विभाग (PWD) में सुपरवाइजिंग एकाउण्टेन्ट थे।“आप को भली भाँति मालूम है अनन्त दा, कि मैं अपने परमपिता से अपना उत्तराधिकार प्राप्त