रावसाहेब और बाबु दोनों ही वेताल की मूर्ति के पीछे से चल पड़े । जैसे जैसे अंदर जा रहे थे वैसे जंगल और ज्यादा घना हो रहा था। वे इतना अंदर पहुँच गये की दोपहर होने के बावजूद रात जैसा अंधेरा छा रहा था। सीधे चलना जितना कहा गया था उतना आसान नहीं था। क्योंकी रास्ते में पेड़ पौधे, बड़ी बड़ी शिलाये इतनी थी की कई बार रास्ता भटक जाते थे। उन्होंने मशाल जलायी जो साथ मे लाई थी। पता नहीं कितनी देर हुई लेकिन ना वेताल की मूर्ति दिखने का नाम ले रही थी, जंगल खत्म होने का। अचानक