वाजिद हुसैन की कहानी - प्रेम कथा मेरे पापा घर में रहते ही नहीं थे, जब आते, गालियां बकते हुए। अपनी नाव से लोगों को नदी पार कराते थे। शाम को नाव नदी किनारे खूंटे से बांधकर दारु पीने चले जाते। अच्छी मज़दूरी होती तो ठररे के साथ मांस- मछली खाते, नहीं तो पकौड़ी खा कर मुंह का कसैलापन दूर कर लेते। मैं पांचवी कक्षा में था। झोपड़ी में तेल की डिब्बी जल रही थी, मम्मी- पापा सोए हुए थे, मैं गणित के प्रश्नो से माथापच्ची कर रहा था। दरवाज़े पर दस्तक सुनकर बाहर गया। सरदार सतनाम सिंह को