एक रोज़ मंज़िल अपने राही से खुद मिलने जा पहुँची भटके हुए राही से नाराज़, मंज़िल ने कहा.... मैं मंज़िल तू मुसाफिर क्यूँ हो गया है काफ़िर जवाब दे मेरे सवालों का हिसाब दे बीते सालों का तू भीड़ में खोया हुआ तू ख्वाब में सोया हुआ तू रोज़ में जकड़ा हुआ तू मुक्त पर सिकुड़ा हुआ तेरी काठ क्यूँ झुकी सी है आवाज़ भी बुझी सी है आँखो का सूरज ढल गया कदमों का जैसे बल गया जो रोटी झट से पचती थी अब निवालों में ही फँसती हैं जो ज्वार सी निर्बाध थी वो