मेरे अजनबी हमसफ़र - भाग 2

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मेरे अजनबी हमसफ़र (भाग-2) जिंदगी की राह में सिलसिले कुछ अजीब रहे ,अनजान रास्ते ,अनजाने से मोड़, अजनबी हमसफ़र, अजनबी सी दौड़, अनकहे रिश्ते, अनकही सी होड़, सफर तो फर्ज़ के दरवाजे पे जाके सुलझा है ,अजनबी हमसफ़र का हर अल्फ उलझा है , उसने अपना पता लिखा वह पता मेरे शहर से तीन सौ किलोमीटर के फासले पर था । मैं रात भर सोचता रहा कि सुबह तो उनके पास जाना ही है चाहे तूफान क्यों ना आ जाये ,मन मे अजनबी सफर से मिलने की लालसा रात भर जगी रही कि रात के दो बज गए, सोचते सोचते