क़ाज़ी वाजिद की कहानी - प्रेरक कथा मेरे पिता तो अधिकतर घर पर रहते ही नहीं थे। घर आते थे, तो अपशब्द बकते हुए या बड़बड़ाते हुए, कभी हंसते हुए। हर व्यक्ति पर भरोसा कर लेते थे और हर एक से धोखा खाते थे। ...और मां! वो तो घर के आंगन तक पैर न रखती थी, जब तक कि बिल्कुल ज़रूरी नहीं हो जाता था। केवल मैं घर से बाहर निकलता था- स्कूल के लिए और दुकान की ओर दूध के लिए। हम लोग निर्धन थे...खानदानी लोगों का गरीब हो जाने से बढ़कर बोझ है कोई? एक छोटे से गांव