जीवन सूत्र 476 सृष्टि के कण-कण में अनुभूति का विस्तारआत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।(6/32)।इसका अर्थ है:-हे अर्जुन ! जो पुरुष सब जगह समान रूप से अपने को ही देखता है। चाहे सुख हो या दु:ख स्वयं भी वही अनुभूति करता है,वह परम योगी माना गया है। एक सच्ची मानव की दुनिया केवल स्वयं तक सिमटी नहीं रह सकती है।वह सृष्टि के कण-कण में ईश्वर को देखता है।सभी प्राणियों के सुख और दुख को अपना मानता है और यथासंभव सभी की सहायता करने का प्रयत्न करता है। जीवन सूत्र 477 सुपात्र की करें