रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 9

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(9)  * तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता॥तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा॥3॥ भावार्थ:-आप से लेकर मच्छरपर्यन्त सभी छोटे-बड़े जीव आकाश में उड़ते हैं, किंतु आकाश का अंत कोई नहीं पाता। इसी प्रकार हे तात! श्री रघुनाजी की महिमा भी अथाह है। क्या कभी कोई उसकी थाह पा सकता है?॥3॥ * रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन॥सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा॥4॥ भावार्थ:-श्री रामजी का अरबों कामदेवों के समान सुंदर शरीर है। वे अनंत कोटि दुर्गाओं के समान शत्रुनाशक हैं। अरबों इंद्रों के