रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 1

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7 - उत्तरकाण्ड (1) सप्तम सोपान-मंगलाचरण श्लोक : * केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नंशोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्‌।पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं।नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्‌॥1। भावार्थ:-मोर के कण्ठ की आभा के समान (हरिताभ) नीलवर्ण, देवताओं में श्रेष्ठ, ब्राह्मण (भृगुजी) के चरणकमल के चिह्न से सुशोभित, शोभा से पूर्ण, पीताम्बरधारी, कमल नेत्र, सदा परम प्रसन्न, हाथों में बाण और धनुष धारण किए हुए, वानर समूह से युक्त भाई लक्ष्मणजी से सेवित, स्तुति किए जाने योग्य, श्री जानकीजी के पति, रघुकुल श्रेष्ठ, पुष्पक विमान पर सवार श्री रामचंद्रजी को मैं निरंतर नमस्कार करता हूँ॥1॥ * कोसलेन्द्रपदकन्जमंजुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृंगसंगिनौ॥2॥ भावार्थ:-कोसलपुरी के स्वामी श्री रामचंद्रजी के