(18) वनवासियों द्वारा भरतजी की मंडली का सत्कार, कैकेयी का पश्चातापदोहा : * सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥249॥ भावार्थ:-तालाबों में कमल खिल रहे हैं, जल के पक्षी कूज रहे हैं, भौंरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत रंगों के पक्षी और पशु वन में वैररहित होकर विहार कर रहे हैं॥249॥ चौपाई : * कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥1॥ भावार्थ:-कोल, किरात और भील आदि वन के रहने वाले लोग पवित्र, सुंदर एवं अमृत के समान स्वादिष्ट मधु (शहद)