रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 16

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(16) इंद्र-बृहस्पति संवाद* देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई॥4॥ भावार्थ:-भरतजी के (इस प्रेम के) प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को सोच हो गया (कि कहीं इनके प्रेमवश श्री रामजी लौट न जाएँ और हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाए)। संसार भले के लिए भला और बुरे के लिए बुरा है (मनुष्य जैसा आप होता है जगत्‌ उसे वैसा ही दिखता है)। उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा- हे प्रभो! वही उपाय कीजिए जिससे श्री रामचंद्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो॥4॥ दोहा : * रामु सँकोची प्रेम