रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 8

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(8) लक्ष्मण-निषाद संवाद, श्री राम-सीता से सुमन्त्र का संवाद, सुमंत्र का लौटना* बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी॥काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥2॥ भावार्थ:-तब लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले- हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥2॥ * जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥3॥ भावार्थ:-संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र