गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 59

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भाग 58 सूत्र 66 आकर्षणों के प्रलोभन से बचें कैसे? गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है,यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।3/17।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन! जो मनुष्य आत्मा में ही रम जाने वाला, आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट है,उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता है। पिछले श्लोकों में यज्ञ के स्वरूप,यज्ञमय कर्मों और सृष्टि चक्र में मनुष्य की प्रभावी भूमिका पर चर्चा के बाद भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में मनुष्य के अंतर्मुखी होने के महत्व की ओर संकेत करते हैं।वास्तव में आत्मा में लीन हो जाना,आत्मा में ही संतुष्ट रहना और स्वयं