श्रीमद् ‍भगवद्‍गीता - अध्याय 4

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अध्याय चार  अथ चतुर्थोऽध्यायः- ज्ञानकर्मसंन्यासयोग  योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षण भगवत्स्वरूप   श्री भगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ ।विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥śrī bhagavānuvācaimaṅ vivasvatē yōgaṅ prōktavānahamavyayam.vivasvān manavē prāha manurikṣvākavē.bravīt৷৷4.1৷৷ भावार्थ : श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा॥1॥   एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥ēvaṅ paramparāprāptamimaṅ rājarṣayō viduḥ.sa kālēnēha mahatā yōgō naṣṭaḥ parantapa৷৷4.2৷৷ भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना,