सब कुछ यथावत

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प्राय ऐसा हर दिन ही होता था कि इधर मैंने चाय पीकर कप रखा और उधर एक जानी पहचानी सी आवाज़ हर दिन आती है। मेरे चाय के कप का खली होना और उसकी आवाज़ आना जैसे दोनों ही यंत्रचालित हों। उसकी आवाज़ के साथ ही प्राय आस पास की औरतें बाहर आकर उसे घेर लेती हैं। मैं भी यह आवाज़ सुनकर बहार आ ही जाता हूँ। अकेला रहता हूँ ना इसलिए खुद ही बाहर आना पड़ता है लेकिन आस पास की औरतों के बीच जाकर उनसे पहले सब्जी लेना निश्चय ही एक दुष्कर कर्म है। वैसे सच मनो तो मैंने कभी कोशिश भी नहीं