गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 54

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जीवन हो यज्ञमयगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।3/10।।इसका अर्थ है,प्रजापिता ब्रह्मा ने सृष्टि के प्रारंभ में यज्ञ सहित प्रजा का निर्माण कर कहा- इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम्हारे लिये इच्छित कामनाओं को पूर्ण करने वाला (इष्टकामधुक्) हो। पिछले आलेख में अपने कर्मों में यज्ञ जैसा परोपकार भाव लाने की चर्चा की गई थी।पंच महायज्ञ के अंतर्गत हमने ब्रह्म यज्ञ,देवयज्ञ,पितृ यज्ञ,नृ यज्ञ और भूत बलि यज्ञ की बात की। वास्तव में अग्नि में समिधाएं अर्पित कर देवताओं को समर्पित किए जाने वाला यज्ञ ही एकमात्र यज्ञ नहीं