रात साक्षी है - प्रकरण 3

  • 3.6k
  • 1.5k

‘रात साक्षी है’ (तृतीय खंड) ‘मंथन’ का शेष'आज गोदावरी तट की सुधि लुभाती अर्चना के उन क्षणों पर दृष्टि जाती । स्नेह पारावार भी कितना गहन है? दूर की सुधियाँ वही रस घोल जातीं ।आज दिशाएँ चुप हैं, चुप चुप पवन चला है। वन-चारी भी चुप हैं, नभ का रंग छला है ।' 'मृग-कुल सँग ही देहरि सिसकी आँखें भरीं, लाल दहकी हैं । इनसे कितना कहूँ, छिपाऊँ ? मन की कोर बहुत अहकी है ।दिन होगा कितना निर्णायककैसे इनको अभी बताऊँ ? अवसादों से भरे पृष्ठ को इन्हें पढ़ाकर दुखी बनाऊँ ?” आज रात दहता मेरा मनउनका मन भी