दोनों आधे-अधूरे

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हमेशा की तरह मैं खड़की में बैठा दूर आसमान से उभरते चाँद को देख रहा था। चाँद आधा-सा, अधूरा-सा, फिर अपने ग़म की परछाई को छुपाता-सा। शायद उसे भी यह मालूम था कि मैं रोज़ाना की तरह ही उसका इन्तज़ार कर रहा होऊँगा। खिड़की से झाँकता चाँद और मैं दोनों तन्हा, चाँद तन्हा इसलिए कि वो आधा है उसकी चाँदनी शायद रूठी हुई है, और मैं.........मैं तो तन्हा हूँ ही। यही तन्हाइयाँ तो अब मेरी संगी है। इन्हीं तनहाइयों के भीतर मैं अपने आप को ढूँढता हूँ, अपने वजूद को टटोलता हूँ। एक आत्मविश्लेषण सा करता हूँ। मैं कितना प्रतिशत