परमहंस रामकृष्ण के तिरोधान के पश्चात् विवेकानन्द का मन बहुत अशान्त हो गया था। अपने जीवन काल में रामकृष्ण देव बराबर उनका मार्ग दर्शन करते थे। अब वह सहारा नहीं रहा। फलतः जब स्वामी विवेकानन्द जी का मन उखड़ता तब वे आश्रम से कहीं चले जाते थे। जाते समय गुरु भाइयों से कहते–“अब आश्रम में वापस नहीं आऊँगा। यही आखिरी है।” लेकिन उनका यह निश्चय खण्डित हो जाता था। कुछ दिन इधर-उधर बिताकर पुनः वापस आ जाते थे।सन् १८८८ ई० के दिनों उन्होंने निश्चय किया कि बेकार इधर-उधर समय नष्ट करने की अपेक्षा तीर्थाटन करूँ तीर्थाटन के बारे में उन्होंने