गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 41

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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।2/64।।इसका अर्थ है,अन्तःकरण को अपने वश में रखने वाला कर्मयोगी साधक राग और द्वेष से रहित अपने नियंत्रण में की हुई इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ, अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है। जब आसक्ति रहित होने की बात आती है,इंद्रियों को उनके विषयों से मुक्त करने की बात आती है तो मनुष्य पूरी तरह इनके निषेध पर बल देता है।इसका मतलब है हमारा इंद्रियों के विषयों के प्रति शून्य हो जाना।इंद्रियां जिन चीजों को ग्रहण करती हैं, उन्हें पूरी तरह रोक देना। वास्तव में व्यवहार में यह