रोज़--(अज्ञेय की कहानी)

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दोपहरिए में उस घर के सूने आँगन में पैर रखते ही मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किंतु फिर भी बोझिल और प्रकंपमय और घना-सा फैल रहा था...। मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझाई हुई मुख-मुद्रा तनिक-से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गई। उसने कहा, “आ जाओ।” और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया। भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, “वे यहाँ नहीं हैं?” “अभी आए नहीं, दफ़्तर में