आखिरी लोरी...

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साँझ का समय था,गंगाजली मिट्टी से लीपे आँगन को बुहार रही थी,खुला आँगन और घर के पिछवाड़े पीपल और बबूल के पेड़ हैं तो दिनभर में ना जाने कितने सूखे पत्ते आँगन में इकट्ठा हो जाते हैं वो उन्हीं को झाड़ रही है और साथ में कुछ बड़बड़ा भी रही है जो इस प्रकार है..... आँगन बुहार लूँ तो फिर रात का भोजन भी तो पकाना है,अभी कुछ देर में सूरज डूब जाएगा तो सारे गाँव में अँधियारा फैल जाएगा,सूरज डूबने से पहले भोजन पका लो तो अच्छा नहीं तो ढ़िबरी की रौशनी में ना हाण्डी में मसाला भुनने का