तमाचा - 24 (जिज्ञासा)

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"देख लो अपने लाडले की करतूत । हम है जो इसे पढ़ाने के लिए दिन-रात एक किये जा रहे है और ये लाटसाहब है ,इनको तो कुछ और ही पड़ी है। क्यों भला हमारे सब्र की परीक्षा ले रहे हो? तुम्हें पढ़ाई करनी है तो करो वरना मैं जिस दुकान में काम करता हूँ, मालिक से बोलकर तुम्हें भी उसमें लगा देता हूँ।" आज मोहनचंद ने अपने सब्र का बांध तोड़ते हुए कहा। राकेश अभी तक अपनी नजरें झुकाए हुए था। उसके पिता ने उसे क्या कहा, उसे कुछ ध्यान में नहीं पड़ा। वह अभी तक उसी क्षण में खोया