अब बिंदु का अपने पिता के प्रति व्यवहार कुछ बदल सा गया। वह सिर्फ अपने काम से काम रखती और पिता से केवल इतनी ही बात करती जितनी अतिआवश्यक हो या केवल पिता द्वारा कुछ पूछने पर उसका जवाब ही देती। वह अब दिन भर खोई- खोई सी रहने लगी। उसे वह बात अंदर ही अंदर खाये जा रही थी । न तो उसकी कोई सहेली थी, जिससे वह मन बात कर सके और न ही अपने पिता पर अपने अंदर का क्रोध निकाल सकने के उसमे साहस था। विक्रम भी कुछ समझ नहीं पा रहा था कि आखिर उसकी