सफलता एक दिन में नहीं मिलती इसे पाने में कई सालों की मेहनत और लगन लगती है। जब कोई नॉरमल इंसान यह कहता है तो लोग तालियां बजाकर उसे प्रोत्साहित करते हैं। परंतु अगर कोई दिव्यांग कहता है उसे कहा जाता है कि पहले तू तो ठीक हो जा फिर देखा जाएगा। कभी ताने तो कभी झूठी सहानुभूति देना तो जैसे इस समाज का दिव्यांगों के प्रति मूल कर्तव्य है। परंतु वह किसी भी ताने की परवाह किए बिना आगे बढ़ते जाते हैं। जब मैंने पुष्कर के प्रवीण शिक्षा निकेतन विद्यालय जाना शुरू किया और तब लोगों ने कहा कि इसे नॉरमल बच्चों के साथ क्यों डाला है? इसके लिए स्पेशल स्कूल्स हैं। परंतु न मेरे माँ पापा ने किसी की सुनी और न ही मेरे भाइयों और बहनों ने मेरे प्रति कोई भेदभाव किया बल्कि हमेशा मेरे सपनों के प्रति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। और मैंने समाज को पहली पटकनी तब दी मैं राजस्थान के ही नहीं बल्कि भारत के सर्व प्रतिष्ठित विद्यालयों में से एक प्रायोगिक बहुउद्देशीय विद्यालय अजमेर की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हुई। हां परंतु पुराने विद्यालय को छोड़कर नए विद्यालय में जाना मुझे अखर रहा था क्योंकि एक डर था कि इतने बड़े विद्यालय के बालक बालिकाएं मुझसे दोस्ती भी करेंगे या नहीं। यहां भी सभी मेरे अच्छे दोस्त बन गए। यहां के सभी मित्रों, वरिष्ठों व शिक्षकों ने मेरी न सिर्फ सहायता की बल्कि मुझे मेरे लेखन से जुड़े रहने में भी सहायक बने। वहीं कुछों ने मेरा मज़ाक बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। परंतु मेरे दोस्तों ने मुझे प्रोटेक्ट करके रखा। सृष्टि का अर्थ होता है रचना। कविताओं की रचना यूं तो तीसरी कक्षा से ही शुरू कर दी थी परंतु पहले सिर्फ हॉबी के तौर पर लिखा करती थी। न जाने ये कब मेरी कला बन गई पता ही नहीं चला । मेरी पहली और दूसरी कविता के बीच लगभग चार वर्ष का अंतराल था।अपनी दूसरी कविता सातवीं कक्षा में अपनी हिंदी की अध्यापिका नेहा मेम की प्रेरणा से लिखी थी। पहले मैं टूटी फूटी तुकबंदी को ही कविता समझती थी। परंतु जब उसमें साहित्य का शॉट लगा तब जाकर समझ आया कि कविता की पिच पर कैसे खड़े रहना है। इसमें नेहा मेम और मेरे भइया मेरे मार्गदर्शक बने और उन्होंने ही सिखाया काव्य को क्रमागत करना। फिर यह कलम कभी चुप नहीं हुई। परंतु लाइफ जब तक झटका नहीं देती तब तक आप बैकफुट पर ही खेलते हो। लाइफ में पहली बार यॉर्कर का सामना किया, मतलब बारहवीं कक्षा में कम्पार्टमेन्ट आया था तब मैंने फ्रंटफुट आगे लिया और पास हो गई। अब पढ़ाई की पिच पर डगमगाती हुई आगे बढ़ रही हूं और अभी साइकोलोजी की पढ़ाई जारी है। आप सोच रहे होंगे कि मैं कभी हारी नहीं। मैं एक बार नहीं बल्कि कईं बार हारी परंतु उस हार को जीत बनाने के लिए मेरे भइया हमेशा मेरे साथ एक पार्टनर की तरह मौजूद थे। परंतु जब 3 फरवरी 2022 को जब हारी तो लगा कि बस! अब और नहीं खेल पाउंगी। क्योंकि मेरे पार्टनर लाइफ की पिच को हमेशा हमेशा के लिए अलविदा कह गए थे। उस दिन मैं हार गई थीं। लगभग छः महीने बाद मैं पहली बार जीती थी। अर्थात् मेरी पहली किताब प्रकाशित हुई थी, और यह सब उसी पार्टनर के आशीर्वाद से संभव हो सका है। हालांकि इस जीत में कई लोगों का योगदान है जैसे मेरे परिवार, मेरे दोस्तों , मेरे आलोचकों व इस ताने देने वाले समाज का। परंतु मेरी इस जीत, इस सफलता का श्रेय मुख्य रूप से दो लोगों को देना चाहुंगी , जिनका मेरी सफलता में सबसे बड़ा हाथ है। पहले है मेरे पार्टनर यानि मेरे भइया और दूसरी है वो परी जो कभी भी मुझे भाई की कमी महसूस ही नहीं होने देती है यानि मेरी भाभी। सृष्टि तिवाड़ी