उजाले की ओर –संस्मरण

  • 3.4k
  • 1.2k

---------------------------------- स्नेही एवं प्रिय मित्रों नमस्कार, प्रणाम, नमन जीवन की इस गोधूलि में कितनी ही बातें लौट-फिरकर धूल भरे पृष्ठों को झाड़ती-पोंछती सी मन के द्वार खोलकर झाँकने लगती हैं । आपके मन के द्वार की झिर्रियों से भी अवश्य झाँकती ही होंगी, यह मानव-स्वभाव है । इसमें कुछ न तो नया है और न ही असंभव ! हमारे मन में न जाने कितने कोने हैं और किसी न किसी कोने में कुछ न कुछ दबा-पड़ा रहता है, वह कभी भी किसी ज़रा सी ठसक से हमारे समक्ष आ खड़ा होता है और हमें यह सीखना पड़ता है बल्कि यह