उम्मीद बाकी है

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शीत ऋतु की एक संध्या थी |मैं छत पर खड़ी क्षितिज की ओर ,जहां अभी-अभी सूर्यास्त हुआ था ,आकाश को निहार रही थी |सुदूर पश्चिमी क्षितिज पर ढलने वाली रात के भूरे साये बचे-खुचे दिन के गुलाबी अवशेषों पर हावी हो रहे थे |ऐसा लगता था कि दिन -भर की थकी हुई धूल शाम के बदमिजाज धुएँ से यूं मिन्नत कर रही है कि ‘’आओ,दोनों एक साथ आराम के कुछ पल बिता लें |’’ ठंडी हवा के झोंकों से मुझे कंपकपी आ गयी ,जिसने मुझे वह दिन याद दिला दिए ,जब जाड़े की दुपहरी में दादी धूप सेंका करतीं और