(मिलन की आस2) बीत गया दोपहर, हो गयी शाम। जैसे जैसे शाम ढलती गयी वैसे वैसे सीने में एक भड़कती आग बढ़ती गयी। और उनसे मिलने के आस की आग ऐसे अंदर भड़क रही थी कि हम उन्हीं से बात नहीं कर पाए, न कुछ कह पाए ना कुछ सुन पाए दिल में इतना कुछ चल रहा था लेकिन कुछ भी नहीं बता सके उन्हें, वो पूछते रहे कि क्या कह रही हो, हुआ क्या है लेकिन कुछ नहीं बस एक जवाब कुछ नहीं कुछ नहीं कुछ नहीं। अंततः हमारी लड़ाई ही हो गयी फोन रख दिया। मैसेज ही कर