तीन. अपनी ऐसी समझ के चलते ही साहित्यकारों के प्रति एक आंतरिक अनुभूति मुझे भीतर से प्रेरित करती कि किसी लेखक या साहित्यकार के प्रति हमें लगभग वही भाव रखना चाहिए जो प्रायः किसी बच्चे के लिए रखा जाता है। क्योंकि अबोध बालक केवल तभी भूखा होता है जब वो भूखा होता है। जिस समय कोई भूखा बच्चा हमें दिखता है तो पहले हम यही सोचते हैं कि इसका पेट भरे। कहीं से कुछ ऐसा मिले जो इसे खिलाया जा सके। उस समय हमारी प्राथमिकता में ऐसी बातें नहीं आतीं कि इस बच्चे के भोजन की कीमत कौन देगा? इस