’कौन हो तुम?’’ कस्बापुर की मेरी जीजी के घर का दरवाजा खोलने वाली की बेबात मुस्कराहट मुझे खल गयी। उसके दिखाव-बनाव की तड़क-भड़क भी उस समय पर मुझे असंगत लगी। अभी पिछले ही दिन जीजी अपने पथरी के ऑपरेशन के बाद अस्पताल से इधर अपने घर लौटी थीं और मेरे कलकत्ता आवास पर फोन किया था, ’तुम मेरे पासी चली आओ।’ और मैं सीधी रात की गाड़ी रात की गाड़ी पकड़कर इधर सुबह साढ़े दस बजे पहुँच गयी थी। ’मैं सुमित्रा हूँ’, बदतमीज लड़की ने अपनी कांच की चूड़ियाँ बजाते हुए ठीं-ठीं छोड़ी, ’आप मेम सहाब की बहन हुईं?’ ’जीजी’,