उत्तरजीवी

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विभागाध्यक्ष की ऊंची एड़ी की सैंडिल अपनी धमक के साथ विभाग की ओर तेजी से बढ़ रही थी। लिव ! लिव ! लिव ! सुधा ने मन ही मन दोहराया और मुस्कराई । पंद्रह दिन पहले अस्पताल से लौटकर जब वह अपने कमरे में कराही थी: ईवल ! ईवल ! ईवल ! तो अकस्मात् उस समय प्रकट हुआ था: ईवल ! ईवल ! ईवल ! का प्रस्तार लिव ! लिव ! लिव ! में बदलता जा रहा था। लगभग वैसे ही जैसे पौराणिक वाल्मीकि का मरा ! मरा ! मरा ! बारंबार राम ! राम ! राम ! बनता चला