अग्निजा - 32

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प्रकरण 32 स्तब्ध, किंकर्तव्यविमूढ़, आघातग्रस्त...ये सभी शब्द केतकी की मनःस्थिति का वर्णन करने के लिए कम पड़ रहे थे। मुझको जीवनदान देने वाले, मुझे मेरा बचपन देने वाले, मासूमियत से पहचान करा देने वाले, रंगीन संसार के दर्शन कराने वाले दोनों आधारस्तंभ चले गए। एक के पीछे एक। वह भी थोड़े समय के भीतर ही। नाना-नानी न होते तो मेरा क्या हुआ होता, यह प्रश्न तो उसके मन में उठा ही नहीं, क्योंकि यदि वे नहीं होते तो वह जिंदा ही नहीं रही होती, इस बात का उसे पूरा भरोसा था। प्रेम, ममता, अनुकंपा, मानवता और एकदूसरे की चिंता करना