मजदूर की बेटी

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मैं प्रतिदिन उसे शाम के वक्त पसीने से लथपथ होकर अपने घर की तरफ लौटता देखता।सिर पर मैला-कुचैला पगड़ी बांधे, शरीर पर धूलकण,पैबंद लगी पुरानी धोती पहने हुए वह अपने कंधे पर कुदाल लेकर लौटता था।पर वह किस जगह मजदूरी करता मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी।परंतु,मैं जिस वक्त अपने घर लौटता ठीक उसी वक्त वह भी लौटता था।अक्सर,हमारी मुलाकात सड़क पर हो जाती थी।किंतु,बातचीत नहीं हो पाती।मैं दिनभर दफ्तर में कार्य करता था।इस कारण काफी थक जाता था।इतनी थकावट रहती थी,रास्ते में मैं पूरी कोशिश करता किसी से बातचीत ना करूँ और जल्दी-जल्दी घर पहुँच सकूँ।बस,हमारी इसी तरह