अपंग - 28

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28  -----   भानु का मन फिर से कितना भारी हो गया था। न बाबा के पास से जाने का मन था और न ही उनके पास बैठने का साहस ! बाबा उसके सर पर बार-बार हाथ फिराकर जैसे उसे शांत करने की चेष्टा करते रहे | जैसे वे जानते थे कि उसके भीतर आखिर चल क्या रहा था ? आखिर पिता थे, वो भी एक स्नेहिल मित्र पिता --कैसे न समझते ? इतना तो माँ-बाबा दोनों ही समझते थे कि उनकी बिटिया के मन में बड़ी उहापोह है ! लाखी नाश्ता करके आ गई थी | भानुमति उसे लेकर