आँख की किरकिरी - 24

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(24) आशा संकोची बैठी रही। महेंद्र ने भी कुछ न कहा। चुपचाप छत पर टहलने लगा। चाँद अभी तक उगा न था। छत के एक कोने में छोटे-से गमले के अंदर रजनीगंधा के दो डंठलों में दो फूल खिले थे। छत पर के आसमान के वे नखत, वह सतभैया, वह काल-पुरुष, उनके जाने कितनी संध्या के एकांत प्रेमाभिनय के मौन गवाह थे - आज वे सब टुकुर-टुकुर ताकते रहे।  महेंद्र सोचने लगा - इधर के इन कई दिनों की इस विप्लव-कथा को इस आसमान के अँधेरे से पोंछ कर ठीक पहले की तरह अगर खुली छत पर चटाई डाले आशा