चलो, कहीं सैर हो जाए... - 14

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थोड़ी देर तक हम लोग नदी के किनारे किनारे चलते रहे। वह एक पहाड़ी नदी थी जिसमें पत्थर और छिटपुट झाड़ियों के अलावा कहीं कहीं ठहरा हुआ पानी तो कहीं से पानी की पतली धारा अपनी राह बनाकर आगे बढ़ती हुई नजर आ रही थी। रास्ते के शुरुआत से ही हलकी चढ़ाई का अहसास हो रहा था।कुछ आगे बढ़ने पर हम नदी को लगभग भूल ही गए और अपने सामने बिखरे हुए कुदरत के अनुपम सौन्दर्य में खो से गए। भरी दोपहरी और तेज धूप के बावजूद यह आश्चर्यजनक ही था कि हमें नाम मात्र का भी पसीना नहीं हो