सुहागन--(विजय शर्मा की कहानी) पूरा घर भांय-भांय कर रहा था। कमरे में नारायणदत्त अकेले थे। उनके सामने गहनों का डिब्बा खुला पड़ा था, गहने इधर-उधर बिखरे पड़े थे। सामने से गायत्री उनकी ओर चली आ रही थी, मुस्कुराती हुई। नारायणदत्त को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। पर वही थी, धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती हुई। उन्होंने बांयी ओर देखा, बाईं ओर से गायत्री चली आ रही थी, मुस्कुराती हुई, धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती हुई। ``मुस्कुरा क्यों रही हो? बोलो।'' वो पूछना चाहते थे मगर उनके गले से आवाज़ नहीं निकली। वह मुस्कुराती हुई उनकी ओर बढ़ती रही। नारायणदत्त ने दाईं