उन दिनों दूध की तकलीफ थी. कई डेरी फर्मों की आजमाइश की, अहीरों का इम्तहान लिया, कोई नतीजा नहीं. दो-चार दिन तो दूध अच्छा, मिलता फिर मिलावट शुरू हो जाती. कभी शिकायत होती दूध फट गया, कभी उसमें से नागवार बू आने लगी, कभी मक्खन के रेजे निकलते. आखिर एक दिन एक दोस्त से कहा-भाई, आओ साझे में एक गाय ले लें, तुम्हें भी दूध का आराम होगा, मुझे भी. लागत आधी-आधी, खर्च आधा-आधा, दूध भी आधा-आधा. दोस्त साहब राजी हो गए. मेरे घर में जगह न थी और गोबर वगैरह से मुझे नफरत है. उनके मकान में काफी जगह