लीला वहाँ लगातार छह-सात दिन बनी रही, पर अजान अथाईं पर नहीं फटका। वह मन ही मन उसके लिये हींड़ रही थी। उसे यक़ीन नहीं हो रहा था कि अजान से उसका रिश्ता पानी पर पड़ी लकीर है! घूम-फिर कर वह वहीं आ जाती कि वे इतने डरपोक और ख़ुदग़र्ज़ तो नहीं हैं, फिर क्या हुआ...? कहीं, बरैया जी अपने भाषणों में जो कहते हैं, वही तो सही नहीं है कि ‘जाति का रोग मिटेगा नहीं हमारे समाज से...। बड़े शहरों की बात अलग है। वहाँ व्यक्ति की जाति से नहीं योग्यता और सामथ्र्य से पहचान होती है। वहाँ के