सन्ध्या की कालिमा और निर्जनता में किसी कुएं पर नगर के बाहर बड़ी प्यारी स्वर-लहरी गूंजने लगती. घीसू को गाने का चसका था, परन्तु जब कोई न सुने. वह अपनी बूटी अपने लिए घोंटता और आप ही पीता! जब उसकी रसीली तान दो-चार को पास बुला लेती, वह चुप हो जाता. अपनी बटुई में सब सामान बटोरने लगता और चल देता. कोई नया कुआं खोजता, कुछ दिन वहां अड्डा जमता. सब करने पर भी वह नौ बजे नन्दू बाबू के कमरे में पहुंच ही जाता. नन्दू बाबू का भी वही समय था, बीन लेकर बैठने का. घीसू को देखते ही