चाँद की किरचें

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बरसों पहले की याद उसे कुछ ऐसे आने लगी जैसे कोई गड़गड़ाता बड़ा सा बादल का भयंकर शोर मचाता टुकड़ा मन के आँगन में टूटने की तैयारी में हो | दो निस्तब्ध सूनी आँखों में न जाने क्या भरा था ? वेदना ? असहजता ? भय ? या किसी अनहोनी को सहने की तैयारी करती बेचारगी ? वह जीवन के सत्य से परिचित थी, बड़ी शिद्द्त से स्वीकारती भी थी बहुत पहले से | किंतु सोचने और स्वीकारने में इतना बड़ा फ़र्क है जैसे समतल और पर्वत की ऊँचाई में ! उसने ऐसे तो कभी सोचा ही नहीं था या