रम्भा अपने घर से साइकिल पर निकली। वह कुछ ही दूरी पर पहुँची कि अचानक उसके कानों में दर्द से कराहती ज़ोर की चीख़ें सुनाई दीं बचाओ-बचाओ। रम्भा की साइकिल में ब्रेक मानो अपने आप ही लग गया। जिस तरफ़ से आवाज़ आई, उसने वहाँ साइकिल खड़ी कर दी। स्ट्रीट लाइट नहीं थी, चारों तरफ़ अंधकार पसरा हुआ था, रास्ता सुनसान था। नई बन रही सोसाइटी सूनी पड़ी थी, जहाँ आधे-अधूरे बने मकान अपनी हाज़िरी दिखा रहे थे। होली का समय था, इसलिए सभी मज़दूर अपने गाँव को पलायन कर चुके थे। अँधेरे में ज़्यादा कुछ रम्भा को समझ नहीं