अजीब कशमकश थी गिरीराज के मन में ।रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी पर उसकी आंखों में अंश मात्र भी नींद नहीं थी। वो सोच रहा था- क्या कर राहा हूं मैं .... क्या करना चाहिए मुझे....जिन गुत्थियों को सुलझाने के लिए घर छोड़कर निकल गया था क्या उनमें से एक भी सुलझ पाई है .... या कि इस सुलझाने के चक्कर में कुछ ओर ही उलझ गई है.... । क्या है जीवन ..... क्या पाना चाहता हूं मैं..... क्या पाना और खोना हमारे वश में होता है.... क्या मेरी यह देह कठपुतली मात्र है .... किसके इशारों पर