"बसेरा" -डा जय शंकर शुक्लधूल-भरे रास्ते उस पर जेठ की तिलमिलाती गर्मी को सहते, मजदूरों का कारवां बढ़ा जा रहा है, अपने गंतव्य की ओर । मजदूरों का ये कारवां अंत में चलते-चलते रुक जाता है, एक हरे-भरे बरगद के नीचे, जिसकी लाल-गुलाबी नवल किसलय मन को मौह रही थी | उसकी गहरे हरे पत्तों की घनी छाँव और आकर्षित करती लम्बी-लम्बी जटायें मानो कोई सिद्ध पुरुष लंबा-चौडा शरीर लिए समाधि में बैठ सबको अपनी शरण में बैठा सुख-शांति का पाठ पढ़ा रहा हो । सभी मजदूर अपना सामान एक तरफ रख वहीं बैठ जाते हैं । राहत भरी